न मैं किसी परछाईं की / महेश सन्तोषी
न मैं किसी परछाईं की साँझ से
आरतियाँ उतारूंगी;
ना किसी परछाईं को
तुम्हारी आरती सुबह से उतारने दूंगी;
ना मैं अब तुम्हारे अतीत मंे कहीं से झाँकूंगी,
न तुम्हें मेरे अतीत मंे कहीं पर झाँकने दूंगी!
धुएँ कितने भी कम हों, धुँए ही होते हैं,
इसलिए न सँजोए जाते, न आँख में आँजे जाते,
हम क्यों बैठे रहें किसी पिछली आग की बची हुई
आँच को पलकों में बसाके?
जरूरी तो नहीं है कि हम खोजते रहें खोये सावन
और ढोते रहें विगत तृप्तियों के,
प्यासों के सपने, कहाँ तक जाएँ हमारी बाहों के?
प्राणों के बन्धन, हम क्यों पूछें किसी परछाईं से जा के?
क्यों साँसों में पिरोएँ हम? क्यों पूजंे किसी की यादें?
ना मैं अब किसी के नाम पर आहुतियाँ दूंगी
न किसी अनामिका के लिए तुम्हें पलकें भिगोने दूंगी!
प्यार ठहराव नहीं, प्रवाह होता है,
जिन्दगी की नियारी,
जो पीछे छूट गये, रेत के ढेर रहे होंगे,
आशाओं की बही नदी
विश्वासों के संकल्पों से भरी होती है;
कभी भविष्य का विकल्प नहीं होता,
इसलिए कि आँखें, पीठ ही न देखती रहें,
आँखों के सामने नहीं, पीठ पीछे ही होता है
हम क्यों अस्वीकारें नयी सुबह?
नयी साँझ के नाम ही होता है
समय के नये आयाम,
हमारी देहें बोलती सी, लगें,
फिर भी हम देहों से बिल्कुल अबोले रहें,
तुमने मुझे सम्मानित किया है कितना
या अपमानित?
इसका उत्तर तुम्हें ही देना है मुझे नहीं,
समय का चिरन्तन दर्शाना।