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न यह रात है, न दिन है / रुस्तम
Kavita Kosh से
न यह रात है,
न दिन है।
या फिर यूँ कहें कि
रात और दिन यहाँ
दोनों छिन्न-भिन्न हैं,
टुकड़ों में बँट गए हैं —
यह अजब दृश्य
जिसे मैं देख रहा हूँ —
या मैं उसके भीतर हूँ —
क्या यह कोई पेण्टिंग है
जिसमें रात और दिन
बेतरतीब एक ढंग में
यहाँ-वहाँ छिटक गए हैं,
और फट गए हैं,
कट गए हैं,
फिर जुड़ गए हैं,
टेढ़े-मेढ़े मुड़ गए हैं,
स्वयं ही से चट गए हैं,
ऊब गए हैं अपने जीवन से,
भटक गए हैं, भटक गए हैं?
रात और दिन
दोनों छिन्न-भिन्न हैं।
या फिर यूँ कहें कि
न यह रात है, न दिन है।