भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न रहा ज़ौक़-ए-रंग-ओ-बू मुझ को / इक़बाल सुहैल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न रहा ज़ौक़-ए-रंग-ओ-बू मुझ को
अब न छेड़ ऐ बहार तू मुझ को

अब अगर हैं कहीं तो दें आवाज़
क्यूँ फिराते हैं कू-ब-कू मुझ को

अब किसी और की तलाश नहीं
है ख़ुद अपनी ही जुस्तुजू मुझ को

न रहा कोई तार दामन में
अब नहीं हाजत-ए-रफ़ू मुझ को

हाए उस वक़्त हाल-ए-दिल पूछा
जब न थी ताब-ए-गुफ़्तुगू मुझ को