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न रहे ये बाँस न बाँसुरी / कैलाश झा 'किंकर'

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न रहे ये बाँस न बाँसुरी
न चलेगी तेरी यूँ मसखरी।

है निकट ही उसका तो अंत अब
है भी पाप की गठरी भरी।

मैं ज़रूर आ के मिलूँगा, पर
क्यूँ नज़र है तेरी डरी-डरी।

मैं हूँ उसके दिल में बसा हुआ
न भले वह कोई हसीं परी।

जो लहर उठी है समुद्र में
वो तो शान्त होने दे सुन्दरी।

मैं जिऊँगा अपनी ही शर्त पर
हूँ अलग ही थोड़ा मैं साँवरी।