न सर काँधे पे रखते शायरी के / सूरज राय 'सूरज'
न सर काँधे पर रखते शायरी के
तो ये तय है कि मर जाते कभी के॥
हवस छल झूठ मक्कारी ख़ुशामद
अँधेरे हैं तुम्हारी रोशनी के॥
हमारी प्यास का मानी है पानी
मुबारक फ़लसफ़े तुमको नदी के॥
गुनाहों में न गिन चुप्पी हमारी
बहुत से दायरे हैं मुफ़लिसी के॥
कभी जब न था मेरा कोई दुश्मन
निशां हैं पीठ पर मेरी तभी के॥
नहीं है ये अदावत की कहानी
यहाँ पर हाशिये हैं दोस्ती के॥
बदलते दौर में बदले ख़ुदा भी
मगर हैं दर्द वह ही आदमी के॥
फटी साड़ी के माँ पल्लू में तूने
रखे हैं बाँध के सपने ज़री के॥
सियासत में हर इक चेहरा है झूठा
मगर उसपे मुखौटे हैं सही के॥
क़फ़न ढँक दो मेरी आँखें न खोलो
लिफ़ाफ़े बन्द रक्खे हैं किसी के॥
उन आँखों को ख़ुदा महफ़ूज़ रखना
जहाँ पलते हैं सपने नव सदी के॥
मैं बोलूँ झूठ कैसे, जब पता है
कई रस्ते हैं आखिर ख़ुदकशी के॥
बुझेगा न कभी नेकी का दीपक
ऊगा लो लाख तुम "सूरज" बदी के॥