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न हम-नवा मिरे ज़ौक-ए-ख़िराम का निकला / मज़हर इमाम
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					न हम-नवा मिरे ज़ौक-ए-ख़िराम का निकला 
ये रास्ता भी उसी नर्म-गाम का निकला 
नए गुलों की सदा-ए-शगुफ़्त तेज़ हुई 
हवा के लम्स से रिश्त कलाम का निकला
मुसव्विरी न सही काम आई बे-हुनरी 
कोई बहाना तो उन से सलाम का निकला 
तलाश-ए-रिज्क़ में निकले थे महर-ए-सुब्ह लिए 
अक़ब से पहला सितारा भी शाम का निकला 
यहाँ भी धूप चली आई बे-ख़याली की
ये साएबान-ए-तसव्वुर न काम का निकला 
मुसाहिबों की तरह हर क़दम पे ख़ार मिले 
मिरा सफ़र तो बड़े एहतिमाम का निकला 
वही शजर वही पते वही हुआ वही आग 
कलाम-ए-नौ भी मिरा रंग-ए-आम का निकला
 
	
	

