भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही / ग़ालिब
Kavita Kosh से
न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहां और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही
ख़ार ख़ार-ए-अलम-ए-हसरत-ए-दीदार तो है
शौक़ गुलचीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही
मय-परस्तां ख़ुम-ए-म मुँह से लगाये ही बने
एक दिन गर न हुआ बज़्म में साक़ी न सही
नफ़स-ए-क़ैस कि है चश्म-ओ-चिराग़-ए-सहरा
गर नहीं शम्मा-ए-सियहख़ाना-ए-लैली, न सही
एक हंगामे पे मौकूफ़ है घर की रौनक
नौह-ए-ग़म<ref>दुःखों का विलाप</ref> ही सही नग़्मा-ए-शादी<ref></ref> न सही
न सताइश<ref>प्रशंसा</ref> की तमन्ना न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अश'आर में माअ़नी न सही
इशरत-ए-सोहबत-ए-ख़ुबां<ref>सुंदर प्रेयसियों की संगीत का आनन्द</ref> ही ग़नीमत समझो
न हुई, "ग़ालिब" अगर उम्र-ए-तबोई<ref>नैसगिंक आयु</ref> न सही
शब्दार्थ
<references/>