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पँखुरी-पँखुरी बिखरेंगे / यतींद्रनाथ राही

दर्पन को उजराने भर से
रूप नहीं अपने उजरेंगे

जब तक साँसें हैं
चलने दो
सृजन शब्द के ना रुक पाएँ
जाने कब इस महासिन्धु में
तुम खो जाओ
हम खो जाएँ
कल इनकी ही किलकारी से
नयी सृष्टि
बनकर उपजेंगे।

ये अपने आखर अक्षर हैं
महाकाल के शून्य पटल पर
पढ़े जायँगे
युगों युगों तक
तुलसी, सूर, कबीरा के स्वर
अन्धकार में दीप धरो कुछ
ये कुपन्थ
कुछ तो सुधरेंगे।

सोहर लोरी वेद-ऋचाओं
से अब तक की प्रीति-कथाएँ
काम-क्रोध-संघर्ष जनित जो
घिरी व्यथा की घोर घटाएँ
इनको पीर पपीहे की दो
स्वाति-मेघ बनकर बरसेंगे।

साँस-साँस में मलय पवन बन
धड़कन-धड़कन में
वंशी-स्वर
रोम-रोम की कुलक-पुलक से
झरने दो
गीतों के निर्झर
भर लेने दो गन्ध आँजुरी
फिर पँखुरी-पँखुरी बिखरेंगे।
30.10.2017