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पंखा-1 / नज़ीर अकबराबादी

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क्या मौसम गर्मी में नमूदार<ref>प्रकट</ref> है पंखा।
खू़बों के पसीनों का ख़रीदार है पंखा॥
गुलरू का हर एक जा पे तलबगार है पंखा।
अब पास मेरे यार के हर बार है पंखा॥
गर्मी से मुहब्बत की बड़ा यार है पंखा॥1॥

क्यूं कर न उठे दिल से मेरे शोलएजांकाह<ref>प्राणों को घुलाने वाली चिंगारी</ref>?।
जब शोख़ की पंखे के तई जी से हुई चाह॥
जल जावे जिगर क्यूं न भला रश्क से अब आह।
आगे दिले सदचाक<ref>सौ प्रकार से कटा हुआ</ref> हमारा था हुआ ख़्वाह<ref>चाहने वाला</ref>॥
और अब तो दिलो जां से हवादार है पंखा॥2॥

क्या क्या तुझे उल्फ़त को जताता है वफ़ाऐं।
धूप आवे तो करता है पड़ा हाथ से छाऐं॥
बेताब हो कर-कर के खु़शामद की हवाऐं।
लेता है हर एक दम तेरे मुखड़े की बलायें॥
ऐसा तेरी उल्फ़त में गिरफ्तार है पंखा॥3॥

यह उंगलियां नाजु़क जो तुम्हारी हैं नुमाया<ref>प्रकट</ref>।
डरता हूं कहीं फांस से होवें न यह हैरां।
इन नर्म से हाथों का तरस चाहिए हर आं।
पंखे को खजूरी के न लो हाथ में ऐ जां॥
तुमको तो मेरे दिल का सज़ावार है पंखा॥4॥

छेड़ा जो मेरे दिल की मुहब्बत के असर ने।
गर्मी में कहीं बैठ के पंखा तुझे करने॥
रंग चश्म के डोरों के तई खू़ने जिगर ने।
सीख़ो से मिज़ा<ref>पलकों की नोक</ref> की मेरी गूंधा है नज़र ने॥
पंखे तो बहुत बहुत हैं पै यह नूर कार है पंखा॥5॥

दिल बाग़ हुआ जाता है फूलों की भबक से।
और रूह बसी जाती है खु़शबू की महक से॥
कुछ ख़स से कुछ उस पानी की बूंदों की टपक से।
नींद आती है आंखों में चली जिनकी झपक से॥
क्या यार के झूलने का मजे़दार है पंखा॥6॥

जाड़े में जो रहते थे हम उस गुल के कने सो।
गर्मी ने जुदा कर दिया गर्मी का बुरा हो॥
हसरत से भला फूंकिये क्यूंकर न जिगर को।
क्या गर्दिशेअय्यामे<ref>दिनों का चक्कर</ref> हैं देखो तो अज़ीजो<ref>मित्रों, प्रियजनों</ref>॥
जब यार के हम यार थे अब यार है पंखा॥7॥

नर्मी से सफ़ाई से नज़ाकत से भड़क से।
गोटों की लगावट से और अबरक की चमक से॥
मुक़्कै़श के झड़ते हैं पड़े तार झपक से।
दरियाई व गोटे व किनारी की झमक से॥
क हाथ में काफ़िर के झमकदार है पंखा॥8॥

एक दम तो मेरी जां तेरे पंखे की हवा लूं।
गर्मी तो पंखे की है टुक उसको निकालूं॥
आंखों से मलूं प्यार करूं छाती लगा लूं।
गर हुक्म करे तू तो मेरी जान उठा लूं॥
एक चार घड़ी को मुझे दरकार है पंखा॥9॥

इस धूप में ऐ जां कहीं मत पांव निकाले।
जलती है ज़मीं आग सी पड़ जायेंगे छाले॥
गर्मी है ज़रा तन के पसीने को सुखा ले।
आंखों में मेरी बैठ के टुक सर्द हवा ले॥
दीवार का तेरे ही तलबगार है पंखा॥10॥

रखती है तेरे हुस्न से सामाने चमन चश्म।
सूरत से तेरी रखती है नित उसकी लगन चश्म॥
सूराख़ से हर जाल से हर लहर से बन चश्म।
देखे हैं तेरे मुंह को यह होकर हमातन<ref>ध्यानपूर्वक, टकटकी लगाकर</ref> चश्म॥
यां तक तो तेरा तालिबेदीदार<ref>दर्शनाभिलाषी</ref> है पंखा॥11॥

है यह वह हवादार जहां इसका गुज़र हो।
फिर गर्मी तो वां अपने पसीने में चले रो॥
करता है ख़ुशी रूह को देता है अ़र्क खो।
रखता है सदा अपने वह क़ब्जे में हवा को॥
सच पूछो तो कुछ साहिबेअसरार<ref>भेद छुपाने वाला</ref> है पंखा॥12॥

ले शाम से गर्मी में सदा ताबा सहर गाह।
रहता है हर एक वक़्त परीज़ादों के हमराह॥
आशिक़ के तई उसकी भला क्यूंकि न हो चाह?।
फूलों की गुंथावट से अब उस गुल का ”नज़ीर“ आह॥
रश्क चमनो हसरते गुलज़ार है पंखा॥13॥

शब्दार्थ
<references/>