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पंखा-2 / नज़ीर अकबराबादी

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बर्ग गुलो लाला का न बनवाइये पंखा।
इस से भी सुबक<ref>हल्का</ref> और कोई मंगवाइये पंखा॥
हम तर हैं पसीने में तो क्या आपको साहब।
ख़ुश बैठे हुए आप तो झमकाइये पंखा॥
मुद्दत के तुम्हारे हैं हवादार हम ऐ जां।
एक चार घड़ी हमसे भी झलवाइए पंखा॥
सुनकर यह कहा खै़र अगर है यूं ही दिल में।
तो जाके शिताबी<ref>तुरन्त</ref> अभी ले आइए पंखा॥
जब हमने कहा यां तो खजूरों के हैं अक्सर।
मुक्केश का ले आवें जो फ़रमाइए पंखा॥
फ़रमाया किसी का हो पे नाजुक हो सुबुक हो।
ऐसा न हो जो फिर के बदलवाइए पंखा॥
बनवा के बसदजे़ब<ref>अत्यधिक मनोरम</ref> कहा हमने यह आकर।
हम शर्त बदें ऐसा जो दिखलाइए पंखा॥
जब हंस के कहा छेड़ तुम्हारी नहीं जाती।
अब जी में है मुंह पर कोई लगवाइये पंखा॥
अलक़िस्सा<ref>अतः</ref> जोही झलने लगे हम उसे ख़ुश हो।
बोला वहीं बस बस ज़रा ठहराइए पंखा॥
हलके़ मेरी जुल्फ़ों के खुले जाते हैं हिल हिल।
ऐसा भी तो लपझप से न झपकाइये पंखा॥
पंखे के भी झलने का नहीं तुमको शऊर<ref>ढंग</ref> अब।
मालूम हुआ बस जी इधर लाइये पंखा॥
एक दिन अ़र्कआलूद<ref>पसीने-पसीने होना लज्जित होना</ref> हो घबरा के कहा मैं।
इस वक़्त तो हमको कोई दिलवाइये पंखा॥
बोला कि वे खु़श फ़ायदा क्या अब जो तुम्हारे।
इन खुरखुरे हाथों से पकड़वाइये पंखा॥
इस छोटे से पंखे की हवा कब तुम्हें आये।
बे फ़ायदा जागह से न हिलवाइये पंखा॥
ऐसा ही जो झलना है ”नज़ीर“ अब तम्हें तो आप।
गुढ पंख के पर का कोई बनवाइये पंखा॥

शब्दार्थ
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