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पंख पसारता मन / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
Kavita Kosh से
पांवों में
पहनी हुई सड़कें: अचेत,
सूँघी हुई वनस्पतियाँ: निर्गन्ध,
शब्द: कैसे भी हों
अनसुना कर रहे हैं श्रवण;
इन नीली दीवारों के
अर्थ-हीन विस्तारों
और
उत्तरोत्तर बढ़ते अन्धकारों के घनत्व को
चीरकर
उड़ना चाहता है-
पंख पसारता मन।