भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पंख बिखरे रेत पर / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
छाँव गहरी
नदी-तट पर
चीखती बूढ़ी टिटहरी
डर हवा में
दूर तक फैला हुआ है
घाट को
सहमे हुए जल ने छुआ है
थरथराते
नीम से
डरकर उतर आयी गिलहरी
खोह में गहरे छिपे
खरगोश चौंके
फिर सहकारी बाज़ को
मिल गये मौके
पंख बिखरे
रेत पर
अंधे रहे दिन - नींद बहरी