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पंख रुके भरे-भरे ताल / कुमार रवींद्र

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इन्द्रधनुष की
सुन कर बात
ठहर गयी बगुलों की पाँत
 
पंख रुके
ठिठक गये
भरे-भरे ताल
चौंक गये
जल-डूबे
मछुए के जाल
 
पूछ रहे मछली से
           पानी की जात
 
पेड़ों ने छुए
धुले भीगे आकाश
खेतों ने
आह भरी
और कहा - काश
 
आती कुछ देर बाद
        पगली यह रात