भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पंख रुके भरे-भरे ताल / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
इन्द्रधनुष की
सुन कर बात
ठहर गयी बगुलों की पाँत
पंख रुके
ठिठक गये
भरे-भरे ताल
चौंक गये
जल-डूबे
मछुए के जाल
पूछ रहे मछली से
पानी की जात
पेड़ों ने छुए
धुले भीगे आकाश
खेतों ने
आह भरी
और कहा - काश
आती कुछ देर बाद
पगली यह रात