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पंख ही चुनते रहे / राजेन्द्र गौतम
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विभ्रांतियाँ संगीत की
जब रात भर छलती रहीं
हम मौन के टूटे हुए लघु पंख ही चुनते रहे ।
रीती हुई अनिवेदिता
फूलों भरी वह आँजुरी
कुचली गई पैरों तले
वह ओस भीगी पाँखुरी
दिखला गई सपने नए
फिर कामनाएँ रेशमी
पर रक्त-रंजित हाथ ले हम काँच ही चुनते रहे ।
सूखी नदी का बालुका
संकेत-लिपि बन गीत की
रह मूक कहती जो कथा
भूली हुई-सी प्रीत की
करती विडम्बित अर्थ को
पर भंगिमाएँ वैखरी
हम शब्द लेकर खोखले बस तूल-सा धुनते रहे ।
आबाद सपनों के शहर
तूफ़ान में ऐसे घिरे
जितने महल हमने रचे
वे सब ज़मीं पर आ गिरे
हो दिग्भ्रमित यह ज़िन्दगी
जिस खण्डहर में आ गई
टकरा उसी से लौटती आवाज़ हम सुनते रहे ।