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पंख होते हैं समय के / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
पंख होते हैं समय के
एक फुनगी पर
कहाँ वह आज तक ठहरा
डाल हाथों को हिला कर
लाख रोके
फूल भी दें खोल
ख़ुशबू के झरोखे
पर गगन छूते
पखेरू पर
लगा कब आज तक पहरा
सुरमई हों साँझ
या हों दिन ललाई के
गीत उसके होंठ पर
रहते विदाई
मिले नख़्लिस्तान कोई
या मिले फैला हुआ
बस दूर तक सहरा
झुलसती हो
स्वप्न की चाहे सुकोमल देह
विवश आँखों से
झरे चाहे निरन्तर मेह
कहाँ रुकता एक पल
वह चला जाता उड़ा
निःश्वास ले गहरा