Last modified on 1 जून 2014, at 23:46

पंख होते हैं समय के / राजेन्द्र गौतम

पंख होते हैं समय के
एक फुनगी पर
कहाँ वह आज तक ठहरा

डाल हाथों को हिला कर
लाख रोके
फूल भी दें खोल
             ख़ुशबू के झरोखे
पर गगन छूते
पखेरू पर
लगा कब आज तक पहरा

सुरमई हों साँझ
या हों दिन ललाई के
गीत उसके होंठ पर
रहते विदाई
मिले नख़्लिस्तान कोई
या मिले फैला हुआ
बस दूर तक सहरा

झुलसती हो
स्वप्न की चाहे सुकोमल देह
विवश आँखों से
झरे चाहे निरन्तर मेह
कहाँ रुकता एक पल
वह चला जाता उड़ा
निःश्वास ले गहरा