अष्टावक्र उवाचः
सतबुद्धि जन उपदेश किंचित, मात्र से ही सिद्ध हों,
पर जन असत जिज्ञासु न, पर्यंत आयु प्रबुद्ध हों.-----१
राग विषयों से ही बंधन और विरक्ति मोक्ष है,
ज्ञान का है सार इतना, शेष सब सापेक्ष है.-------२
तत्त्वबोध है त्यक्त जिनको, भोग प्रिय है विलासता,
तत्वज्ञ को जड़ आलसी, करे मूक की वाचालता.------३
न तू देह, न ही देह तेरी, कर्ता तू भोक्ता नहीं,
चैतन्य तू निरपेक्ष साक्षी, नित्य विचरे हर कहीं.-----४
तुम निर्विकारी, निर्विकल्पी, बोधरूपी अति महे,
राग द्वेष विकार मन के, न आत्मा किंचित गहे.-----५
सब प्राणियों में आत्मा और सब प्राणियों को आत्मा
में जान तज ममता अहम, सर्वत्र है ब्रह्मात्मा -------६
स्फुरित अंतस में तेरे, जगत होता लहर सा,
पर आत्मा चैतन्य तू तो, सदा रहता एक सा.------७
हे तात ! तुम श्रद्धा करो, नहीं मोह से कोई तरे,
तू आत्मा परमात्मा मय, तू तो प्रकृति से भी परे.-----८
यह देह बहु गुण लिप्त और आवागमन से युक्त है,
मत सोच तू तो आत्मा, आवागमन से मुक्त है.-----९
देह चाहे जाए तत्क्षण या कि कल्प के अंत में,
नहीं वृद्धि क्षय चैतन्य तत्व की, मूल उसका अनंत में.-----१०