पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ११
राघवेन्द्र रमणी से बोले-"बिना कहे भी वह वाणी,
आकृति से ही प्रकृति तुम्हारी, प्रकटित है हे कल्याणी!
निश्वय अद्भुत गुण हैं तुम में, फिर भी मैं यह कहता हूँ-
गृहत्याग करके भी वन में, सपत्नीक मैं रहता हूँ॥
किन्तु विवाहित होकर भी यह, मेरा अनुज अकेला है,
मेरे लिए सभी स्वजनों की, कर आया अवहेला है।
इसके एकांगी स्वभाव पर तुमने भी है ध्यान दिया,
तदपि इसे ही पहले अपने, प्रबल प्रेम का दान दिया॥
एक अपूर्व चरित लेकर जो, उसको पूर्ण बनाते हैं,
वे ही आत्मनिष्ठ जन जग में, परम प्रतिष्ठा पाते हैं।
यदि इसको अपने ऊपर तुम, प्रेमासक्त बना लोगी,
तो निज कथित गुणों की सबको, तुम सत्यता जना दोगी॥
जो अन्धे होते हैं बहुधा, प्रज्ञाचक्षु कहाते हैं,
पर हम इस प्रेमान्ध बन्धु को, सब कुछ भूला पाते हैं।
इसके इसी प्रेम को यदि तुम, अपने वश में कर लोगी,
तो मैं हँसी नहीं करता हूँ, तुम भी परम धन्य होगी।"
भेद दृष्टि से फिर लक्ष्मण को, देखा स्वगुण-गर्जनी ने,
वर्जन किया किन्तु लक्ष्मण की, अधरस्थिता तर्जनी ने!
बोले वे-"बस, मौन कि मेरे, लिए हो चुकी मान्या तुम,
यों अनुरक्ता हुईं आर्य्य पर, जब अन्यान्य वदान्या तुम॥"
प्रभु ने कहा कि "तब तो तुमको, दोनों ओर पड़े लाले,
मेरी अनुज-वधू पहले ही, बनी आप तुम हे बाले!"
हुई विचित्र दशा रमणी की, सुन यों एक एक की बात,
लगें नाव को ज्यों प्रवाह के, और पवन के भिन्नाघात!
कहा क्रुद्ध होकर तब उसने-"तो अब मैं आशा छोड़ूँ!
जो सम्बन्ध जोड़ बैठी थी, उसे आप ही अब तोड़ूँ?
किन्तु भूल जाना न इसे तुम, मुझमें है ऐसी भी शक्ति,
कि झकमार कर करनी होगी, तुमको फिर मुझ पर अनुरक्ति।
मेरे भृकुटि-कटाक्ष तुल्य भी, ठहरेंगे न तुम्हारे चाप",
बोले तब रघुराज-"तुम्हारा, ऐसा ही क्यों न हो प्रताप।
किन्तु प्राणियों के स्वभाव की, होती है ऐसी ही रीति,
परवशता हो सकती है पर, होती नहीं भीति में प्रीति॥"
इतना कहकर मौन हुए प्रभु, और तनिक गम्भीर हुए,
पर सौमित्रि न शान्त रह सके, उन्मुख वे वरवीर हुए--
"और इसे तुम भी न भूलना, तुम नारी होकर इतना-
अहम्भाव जब रखती हो तब, रख सकते हैं नर कितना?"
झंकृत हुई विषम तारों की, तन्त्री-सी स्वतन्त्र नारी,
"तो क्या अबलाएँ सदैव ही, अबलाएँ हैं-बेचारी?
नहीं जानते तुम कि देखकर, निष्फल अपन प्रेमाचार,
होती हैं अबलाएँ कितनी, प्रबलाएँ अपमान विचार!