पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ २
सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥
तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,
वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।
अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।
किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!
और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,
व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।
कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;
पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!
मझली माँ ने क्या समझा था, कि मैं राजमाता हूँगी,
निर्वासित कर आर्य राम को, अपनी जड़ें जमा लूँगी।
चित्रकूट में किन्तु उसे ही, देख स्वयं करुणा थकती,
उसे देखते थे सब, वह थी, निज को ही न देख सकती॥
अहो! राजमातृत्व यही था, हुए भरत भी सब त्यागी।
पर सौ सो सम्राटों से भी, हैं सचमुच वे बड़भागी।
एक राज्य का मूढ़ जगत ने, कितना महा मूल्य रक्खा,
हमको तो मानो वन में ही, है विश्वानुकूल रक्खा॥
होता यदि राजत्व मात्र ही, लक्ष्य हमारे जीवन का,
तो क्यों अपने पूर्वज उसको, छोड़ मार्ग लेते वन का?
परिवर्तन ही यदि उन्नति है, तो हम बढ़ते जाते हैं,
किन्तु मुझे तो सीधे-सच्चे, पूर्व-भाव ही भाते हैं॥
जो हो, जहाँ आर्य रहते हैं, वहीं राज्य वे करते हैं,
उनके शासन में वनचारी, सब स्वच्छन्द विहरते हैं।
रखते हैं सयत्न हम पुर में, जिन्हें पींजरों में कर बन्द;
वे पशु-पक्षी भाभी से हैं, हिले यहाँ स्वयमपि, सानन्द!
करते हैं हम पतित जनों में, बहुधा पशुता का आरोप;
करता है पशु वर्ग किन्तु क्या, निज निसर्ग नियमों का लोप?
मैं मनुष्यता को सुरत्व की, जननी भी कह सकता हूँ,
किन्तु पतित को पशु कहना भी, कभी नहीं सह सकता हूँ॥
आ आकर विचित्र पशु-पक्षी, यहाँ बिताते दोपहरी,
भाभी भोजन देतीं उनको, पंचवटी छाया गहरी।
चारु चपल बालक ज्यों मिलकर, माँ को घेर खिझाते हैं,
खेल-खिलाकर भी आर्य्या को, वे सब यहाँ रिझाते हैं!
गोदावरी नदी का तट यह, ताल दे रहा है अब भी,
चंचल-जल कल-कल कर मानो, तान दे रहा है अब भी!
नाच रहे हैं अब भी पत्ते, मन-से सुमन महकते हैं,
चन्द्र और नक्षत्र ललककर, लालच भरे लहकते हैं॥