घना पक्षी विहार
झील के बीच पेड़ पर बैठे हैं
कुछ नहीं कर रहे
सुस्ता रहे हैं।
न बैंक में लॉकर
न चोरी की चिन्ता
न घर की रखवाली
न काम पर जाना
न मकान बनवाना
न बच्चे को पढ़ाना
न प्यारी की चिन्ता,
न बेटी की शादी,
न माँ का इलाज,
न अस्पताल के चक्कर
न मकान का किराया
न राशन की दुकान
न गैस का सिलैन्डर
न कोयले की कमी
न चीनी का अकाल।
न हड़ताल तोड़नी है।
न कविता लिखनी है।
जब मन हुआ
साइबेरिया चल दिए,
इधर आ गए।
जितनी देर, जब तक चाहा
बबूल पर टंगे रहे
खडयार में उलझे
करील में उतर गए।
जब मन किया झील में तैरे
मछली खाई, कीड़ा मारा,
घास कुतर गए।
भूख से ज़्यादा खा लिया
अफ़ारा लिया
धूप सेक ली।
झील के पंछियो
तुम हमारे आदर्श नहीं हो।
रचनाकाल : भरतपुर, 22.10.1981