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पंछी का यही आस विश्वास / राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल
Kavita Kosh से
पंछी का यही आस विश्वास
पंख पसारे उड़ता जाये
निर्मल नीरव आकाश
पंछी का यही आस विश्वास
पिंजड़े की कारा की काया में
उजियारी अँधियारी छाया में
चंदा के दर्पण की माया में
अजगर काल का उगल रहा है
कालकूट उच्छवास
पंछी का यही आस विश्वास
भंँवराती नदियाँ गहरी
बहता निर्मल पानी
घाट बदलते हैं लेकिन
तट पूलों की मनमानी
टूट रहा तन, भीग रहा क्षण,
मन करता नादानी,
निदियारी आँखों में होता
चिर विराम का आभास
पंछी का यही आस विश्वास
किया नीड़ निर्माण,
हुआ उसका फिर अवसान
काली रात डोंगर की बैरी,
बीत गया दिनमान
डाल पात पर व्यर्थ की भटकन
न हुई निज से पहचान
सूखे पत्ते झर-झर पड़ते,
करते फागुन का उपहास
पंछी का यही आस विश्वास
पंख पसारे उड़ता जाये
निर्मल नीरव आकाश