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पंछी / विजय कुमार विद्रोही
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जब जब मैंने मंदिर देखा मस्ज़िद भी याद आई है,
लगता मस्ज़िद की प्राचीरें मंदिर की परछाई हैं ।
एक तत्व को ढूँढा करते मस्ज़िद और शिवालों में ,
विकट ज्ञान हर ओर समाया लाठी,बर्छे, भालों में ।
ये लो मीनारों कि पंछी मंदिर तक हो आऐ हैं ,
और मज़ारों की एक पाती मूरत तक ले आऐ हैं ।
इन्हें अजानों की ना परवाह ना श्लोकों से लेना है ,
इनका होना क्षणभंगुर है काया एक खिलौना है ।
नित्य सकारे कलरव से ये दिन का स्वागत करते हैं ,
किरनों का चुम्बन ले जग में नई चेतना भरते हैं ।
आओ सीखें इनसे सतगुण सीख सीखना सिखलाना ,
काश कभी हो जाता बस में ख़ुद का पंछी हो जाना ।