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पंजाब और बिहारी भाई / कौशल किशोर

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एक-सी बोली
एक-सा चेहरा
एक-सा पहनावा
नेपाल की तराई
बिहार की मिट्टी की गंध
दूर-दूर तक पहुँच रही है
इसी गंध के साथ
पंजाब पहुँच रहा है बिहारी भाई

ट्रेन की छत पर सवार
डिब्बों के हुक पर बैठे
पावदान पर लटके
सबकी घृणा-दुत्कार सहते
भोजपुरी या मगही में गाते
ठेकुए पर दांत अजमाते
भूजा-चबैना फांकते
चिउड़े और आम की मिली-जुली गंध के साथ
पंजाब पहुँच रहा है बिहारी भाई

बोरों में भरे आलू की तरह टकराते
आपस में पिसते
न सामान का होश
न शरीर की सुधि
जितनी मिल गई जगह
उसी में खुश
अपने हिस्से की इस खुशी के साथ
पंजाब पहुँच रहा है बिहारी भाई

पंजाब में हैं उग्रवादी
बड़े खूंखार आतंकवादी
हत्याएँ करते
बैंक में डाला डालते
गाजर-मूली की तरह
आदमी को काटते
क्या इनका नहीं है तुम्हें डर?

मुसाफिर कई-कई सवाल करते
और सवालों के साथ
पंजाब पहुँच रहा है बिहारी भाई

पहले सुनता है
सोचता है
फिर सवाल पर
मन्द मन्द मुस्कुराता है बिहारी भाई
कहता है-
बाबूजी, कहाँ नहीं है डर
गाँव में भूख का डर
टास्क फोर्स का डर
निजी सेनाओं का डर
और यहाँ
पावदान से पाँव फिसल जाने का डर
ट्रेन की छत से गिर जाने का डर
डिब्बे की हुक से नीचे आ जाने का डर
बाबूजी, कहाँ नहीं है डर

और डर से आँख मिचौली खेलता
पंजाब पहुँच रहा है बिहारी भाई

रेल चल रही है
अम्बाला से आगे निकल रही है
बिहारी भाई भी चल रहा है
देश से निकल रहा है
वह जहाँ से आ रहा है
वह जहाँ जा रहा है
इसके बीच
देश में परदेश क्यों गढ़ा जा रहा है?

वह सवालांे से जूझ रहा है
और जूझते-जूझते
पंजाब पहुँच रहा है बिहारी भाई