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पंथ उजारें! / यतींद्रनाथ राही

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कुछ सोचें कुछ समझ विचारें
सबका एक पिता है भाई
सबकी माता यह धरती है
एक हवा ही तो हम सबके
प्राणों में साँसे भरती है
सब को छत
देता है अम्बर
और प्रकृति देती है आँचल
चिरई-चाँचुर, जीव, वनस्पति
सबके लिये एक गंगाजल
इतने बड़े कुटुम के वारिस
यह बिखरा
घर-द्वार सँवारें।

कभी किसी ऋतु का मौसम का
मज़हब पूछा है क्या तुमने?
एक साथ
बरसातों का सुख
जी भर खूब बटोरा हमने
दूध एक है हर स्तन का
श्रद्धा का हो
या हव्वा का
परमधाम का प्राप्य एक है
काशी का हो
या क़ाबा का
एक सूत में गुथे सुमन हम
एक गन्ध का रहस दुलारें।

कभी अलग देखा है किसने
प्यार कबीरा का
मीरा का
गालों पर
खुशियों की छलकन
आँसू में अन्तर पीड़ा का
राज महल से झोपड़ियों तक
एक चाँदनी
धूप एक है
ये आवरण भरम हैं अपने
सबके भीतर
रूप एक है
उसी एक में लय होना है
तो अँधियारे पंथ उजारें।
10.10.2017