भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पके पत्ते / यतींद्रनाथ राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह जगत है
सब अकेले
हैं कहाँ किसके सहारे?

हाथ थामो
दूर मंज़िल है
अभी चलना बहुत है
राह हैं अनजान-पंकिल
जटिल है
छलना बहुत है
है अँधेरे मोड़ काँटे
और उलझी झाड़ियाँ हैं
कुटिल सन्नाटे भयाभय
ले रहे अँगड़ाइयाँ हैं
बिखर जाएँगे कहीं भी
पाँव यदि बहके हमारे।

दिन गये वे
हम पहाड़ों पर कुलाँचे मारते थे
घाटियों से चोटियों तक
हम कहीं
कब हारते थे?
मन किया बस
मुट्ठियाँ कस लीं
निकल कर चल पड़े थे
लक्ष्य भी तो खुद
हमारे सामने आकर खड़े थे
आज हम
मजबूरियों के सामने
कितने बिचारे।

अब पके पत्ते
उड़ें जाने कहाँ कब
किस हवा में
दम नहीं है कुछ
किसी पावन दुआ में या दवा में
एक वह
जो अन्तरिक्षों से
नए सन्देश धरता
धड़कनों में बूँद जो
अमरत्व की बन कर उतरता
ले धरे शायद किसी दिन
राह
उसके ही दुआरे।
2.10.2017