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पक चुकी आँखों की ताबिश / रवि कुमार

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जब कलम से रिसता लहू
जमने लगा हो
सफ़हात पर काला डामर सूखने
आँखों में रेगिस्तान ठहरा हो
और ज़ुबां पर लहलहाने लगे
नासूरों का सहरा
जब हमदर्दी की चाह लिए
अश्क भाप होने लगें
अदाएं खो रही हो अपना सरूर
और आहें दफ़्न हो जाए
किसी मिकानिकी तदबीर में
जब हवा चाँद पर जा छिपे
सूरज किसी दरख़्त के साये में
पानी ज़मीं की गोद में समा गया हो
और ज़मीं बिलआखिर
समन्दर की पनाह लेले
ऐसे ही वक्त के वाइस
ईज़ाद हुई है कविता
मैं उन सफ़हात से
जिन पर तहरीर हैं माकूल नज़्में
एक कश्ती दरयाफ़्त करूंगा
और समन्दर में उतर जाऊंगा
चाँद पर सूत कातती बुढ़िया की
पक चुकी आँखों की ताबिश
मुझे हौसला दे रही हैं