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पक रही है कविता / राजकिशोर राजन
Kavita Kosh से
एक-एक कर पक रहे
बाकी बचे दाढ़ी-मूँछ के बाल
धीरे-धीरे घट रही
आँखों की ज्योति
कितना कुछ छुट गया
अदेखा, अजाना, अचीन्हा
उन्हें देखने, जानने, चीन्हने के लिए
हो रहा भरसक यत्न
और टूट रही है देह
पहले मेहमान थीं बीमारियाँ
अब आती हैं तो नहीं लेती जाने का नाम
बाहर तेज़ है धूप
खेतों में पक रहा है धान
पगडण्डियों से गुज़रता मैं
माथे पर गमछा बाँध
बहुत दिन हुए एक कविता को काटते-पीटते
सोचते, विचारते
कविता भी पक रही है
जैसे पक रहा है धान।