पगडण्डियाँ / रणविजय सिंह सत्यकेतु
टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियों को मत मिटाओ
सीधी राह दण्डवत करने वालों को
चलकर गन्तव्य पहुँचाना सिखाती हैं ये
पश्मीने की शॉल को
पसीने से तर धोती से रू-ब-रू कराती हैं
सादगी भरी सुबह को
सुरमई शाम के क़रीब लाती हैं ये ।
दूर तक फैलाव में पगडण्डियों का संजाल
उन पर चलते मानुखों की लयबद्धता
और उनके सतरंगी पहनावे की ख़ूबसूरती देखी है कभी ?
खैनी और पानी के पहियों पर
घण्टों भूख की गाड़ी खींचते हुए
भगती गाने वालों से साबका पड़ा है ?
सीत-बसन्त
बिहुला-बिसहरी जैसे क़िस्सों में खोकर
उम्मीदों की भगजोगनी को
हथेलियों में सजाने वालों की मुस्कुराहट देखी है ?
मधुबनी पेण्टिंग तो देखी होगी
छापे वाली साड़ी
चौख़ाने वाली लूँगी
या पुराने कपड़ों से सिली सुजनी ?
कोहबर भी नहीं लिखा गया
तेरे घर में कभी ?
बनिये की दुकान पर न गए हो
छटाँक-कनमा-अधपौने में तौली जाती
गृहस्थियाँ न देखी हों
ऐसा तो नहीं हो सकता...
वो भी नहीं ?
तो ऐसा करो हतभागे !
सबके भोजन कर लेने के बाद
लम्बी डकार लेकर बिस्तर पर पसरने से पहले
कभी पलटकर खाना खाती माँ की थाली निहार लेना...
पगडण्डियाँ अपनी परिभाषा सहित मिल जाएँगी
फिर भूल जाओगे सीधी राह दण्डवत करने वालों को
सुविधाओं का पहाड़ मुहैया कराना
और सतरंगी क्यारियों को मिटाकर समरभूमि बनाना ।