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पगडण्डी / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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मेरी दादी-जैसी बूढ़ी,
लाठी ले चलती पगडण्डी ।
साँझ हुई जब सूरज ढलता,
साठ तभी ढलती पगडण्डी ।
पेड़ -तले पलभर टिकती है,
यह दूर देश तक पहुँचाती ।
नदिया के आँचल में छुपकर,
तट के कन्धों पर चढ़ जाती ।
ताप-शीत में चलते रहना,,
दुनिया के सारे दुख सहना ।
हार मानना कब सीखा है
कब सीखा है बैठे रहना ।
वर्षा झेली है नंगे सिर,
झेले हैं सब धूल बवण्डर ।
छोड़ गए यदि संगी -साथी,
देखा था कब पीछे मुड़कर ।
हरदम मुस्काती पगडण्डी,
जीभर बतियाती पगडण्डी ।
है जिसका कोई मीत नहीं,
उसकी बन जाती पगडण्डी ।