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पगध्वनि सहसा, भुजबंधन-से खुल गये द्वार / प्रथम खंड / गुलाब खंडेलवाल

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पगध्वनि सहसा, भुजबंधन-से खुल गये द्वार
पूजोपरान्त मुनि लौटे करते-से विचार
'विभ्रम कैसा? मन आज विकल क्यों बार-बार?
तप-स्खलन-हेतु क्या यह भी कोई नव प्रहार?
कुछ नहीं समझ में आता
देखा सहसा सम्मुख जो चिर-कल्पनातीत
सुरपति कुटीर से कढ़े प्रात-विधु-से सभीत
थी खड़ी अहल्या विनत, लिए मुख-कांति पीत
स्मितमय भौंहों में अतनु छिपा था दुर्विनीत
दुहरी जय पर इतराता
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प्रेयसी वही जो वय-स्नेहाकुल, सजल-प्राण
मानस के तट तिर आयी उस दिन चिर-अजान
रागिनी वही यह आज विवादी-स्वर-प्रधान
पौरुष की हँसी उडाती-सी विपरीत-तान
स्वर के पर खोल रही थी
अपराधी-सा पत्नीत्व खडा नत-नयन मौन
यौवन अल्हड़-सा कहता, 'इसमें पाप कौन!'
हँसती सुन्दरता, 'अपना-अपना दृष्टिकोण'
चेतना भीत भी पिये प्रीति की सुरा-शोण
दीपक-सी डोल रही थी
 
पल में विद्युत्-सा कौंध गया निशि का प्रसंग
वह छद्म प्रात का ढंग, अचानक स्वप्न-भंग
नख-शिख तनु में व्यापी जैसे ज्वाला-तरंग
रक्ताभ नयन, आनन पर क्षण-क्षण चढ़ा रंग
अपमान, घृणा, पीड़ा का
'मैं क्षीणकाय, नि:संबल, निर्बल, संन्यासी
तुम वज्रायुध , स्वर्गाधिप, नंदन के वासी
इस पर भी बुझी न तृषा तुम्हारी सुरसा-सी
कर गए मलिन चोरी से घर आ, मधुहासी--
यह सुमन स्नेह-क्रीडा का
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धिक् सुरपति! जिस पर लुब्ध बने सुर-सदन-त्याग
तुम आये इस निर्जन में वही सहस्र-भाग
अंगों में होगी व्याप्त तुम्हारे ज्यों दवाग
यह अयश-कालिमा ले सिर पर, चिर-मलिन काग
तुम भटकोगे त्रिभुवन में!
  
मुड़कर देखा सहसा पत्नी मुख-छवि विवर्ण
नयनों की झर-झर व्यथा, मर्म-लज्जा अवर्ण्य
पतझर की एकाकिनी लता ज्यों शेषपर्ण--
जीवन-भिक्षा को, भय-कंपित आपाद-कर्ण
धूसर अंचल फैलाए
तड़पा अंतर करुणा-ममता-आक्रोश-विकल
मुनि रहे आत्म-कातरता में जलते, निष्फल
फैला कपोल पर दोषी पलकों का काजल
नारी की दुर्बलता का साक्षी-सा प्रतिपल
कहता था अमित कथाएँ
 
जीवन विषमय कर गयी हृदय की क्षणिक चूक
मन काँप उठा सुख का सपना पा टूक-टूक
पल में कैसा यह मन्त्र काम ने दिया फूँक
लज्जा-भय-च्युत नारीत्व लुटा जैसे मधूक
वंचक मधुपायी-कर से
कुंचित भौंहों पर झलकी चल ज्वाला-तरंग
'स्वामी! अपराध क्षमा,' कहती-सी दृष्टि-संग
चरणों पर पति के गिरी अहल्या शिथिल-अंग
मुनिचीख उठ--'पाषाणी! यह क्या क्रूर व्यंग्य
विष पी डर रही लहर से?
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सूना कुटीर, आश्रम में उड़ता पवन पीत
पतझर-झंझागम-विटप काँपने लगे भीत
पल में सूखी जैसे जीवन-धारा पुनीत
रह गयी गौतमी शिला-सदृश सुखदुखातीत
निज भाग्य-अंक ले फूटे