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पगवंदन न कर सका / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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जाने कैसी हुई वेदना आँसू का सर्जन न कर सका।
मेरे नयनों तक तुम आये पर मैं पग वन्दन न कर सका।

प्रेम तुम्हारा सावन बनकर बरसा रिमझिम नित्य धरा पर,
पर मैं ही मन के बबूल को क्षणभर भी चन्दन न कर सका।

मन का पंछी स्वप्न लोक में भरता नित्य उड़ान रहा है।
तृष्णाएँ बलवती हो उठी मैं दुर्बल वर्जन न कर सका।

जड़ताओं के द्वार खड़ा यह युग जड़ होने को है आतुर
पाषाणों से मोह बढ़ाकर हरा भरा आँगन न कर सका।

तुम तो नित्य प्रेरणाओं की कंचनराशि रहे हो देते
नहीं सहेज सका तिलभर भी सार्थक ये जीवन न कर सका।

कामुकता की जलकुम्भी से हदय सरोवर आच्छादित हैं
क्योकर हैं निष्काम कर्म का योग न कोई सहन कर सका।

जति धर्म मत पंथ बनाता रहे उम्रभर अपने हित ही,
राष्ट्र एकता कि हित कोई क्यों अब तक पूजन न कर सका।