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पचहत्तर साला वृद्धा की हंसी / विपिन चौधरी

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इतनी मुक्त हंसी
क्या युवापन में सम्भव थी कभी
जब सपने, रंग, बरसात, आग
सभी को बिना किसी टकराहट के एक साथ रहने का अनुभव था
पर एक खुली हंसी को इन सबके बीच टिकने की जगह तिल्ली भर भी जगह नहीं थी
आशंका हरपल द्वार खटखटाती और
उसकी युवा हंसी में हर बार एक दरार पड़ जाया करती थी
आसपास के लोग उसकी हंसी की खनक से परेशान होंगे
यह सोच उसकी हंसी का उदगम लड़खड़ा जाता
अब इस पचहतर साल की जर्जर देह की
दंतविहीन हंसी से किसी को कोई परहेज़ नहीं
और यह हंसी भी बेशर्म हो खन-खन करती
बिना रोक-टोक दूर तक चली जाया करती है