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पचैती / पतझड़ / श्रीउमेश

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टहलू मड़रोॅ के गाछी केॅ, सुरजीं काटी लेलै छै।
”ओकरा मुंहों से निकलै आगिन, जों मूँ खोलै छै॥
सबसें खैनी मांगै छै, नाकै सें बोलै हरदम।
जौनें नै खैनी दै छै; पटकी केॅ लैये लै छै दम॥
जेकरा हःथोॅ में आबै छै वै राकसोॅ के एक्को टीक।
जीतै छैं ऊ मोॅर मोकदमा, सभ्भे काम बनै छै ठीक॥
लेकिन पढुआ सब बोलै छै ”हब्बू पांड़ें की कहतोॅ?
सब जानी जैतोॅ केना, जे बीली में घुसलोॅ रहतोॅ?
गैस छिकै ‘फसफोरस’, ई निकलै छै जै ठाँ छै दल दल।
या पत्ता के सड़ला सें खदहा मंे होय छै हलचल॥
ई उपकारी छै; गाड़ी वाला केॅ ये दै छै समझाय।
”दलदल छै यै ठॉ नै ऐहोॅ“ ज्योती सें दै छै बतलाय॥
राकस केना बुलै छै? या की छेकै राकसोॅ के लोक।
आज तलक नैं कहियो देखलाँ, केहनोॅ ओकरोॅ होय छै टीक॥