पच्चीस / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'
मैं किसे दूँ प्यार अपना
सत्य-शाश्वत-मधुर-नूतन
छ्ल रहित सुकुमार स्वार्थ विहीन मन
पारस मंजुल मृतिका की देह, अंक में
भर मधुर चुम्बन सुखद आलिंगन
देखता जिसको बदलता जा रहा
लग रहा है आज-कल में एक सपना
मैं किसे दूँ प्यार अपना
झुक गया नभ का सितारा
वृहद खरतर किरण लेकर
और नीचे आ रहा
थाह पाने को धरा का
मनुज जिस पर जा रहा
क्या कहूँ कुछ समझ में आता नहीं
सत्य कल की आज की बस कल्पना
मैं किसे दूँ प्यार अपना
साँझ का पानी सुबह बासी मिला
मुरझा गया जो फूल था ताज़ा खिला
मूर्छित हुआ वह पवन जो उसको हिला
गौरवान्वित था कभी
शोक में डूबा अभी
सोचता हूँ विश्व कोरा सत्य है
या की है केवल विचित्र बिडम्बना
मैं किसे दूँ प्यार अपना
मैं ढूढ़ता हूँ उस चिरंतन सत्य को
देखकर विस्मृत हुआ जिसके अनोखे कृत्य को
पूछता जिसको, वही अनगढ़ समस्या लादना
समस्या केवल समस्या! मैं निदान हूँ चाहता
प्रश्न के उत्तर भी केवल प्रश्न हैं
प्रश्न बस! संसार भर की कामना
सत्य केबल प्यार अपना
मैं किसे दूँ प्यार अपना