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पछतावा / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
एक्कां एक आरु एक दाँही दस
खाली सिलोटी पर खल्ली घस ।
दू अठी सोल्लह, दू दुनी चार
खोआ केॅ देखथैं मुँहोॅ में लार ।
तीन पँचे पन्द्रह, तीन दाँही तीस
पढ़है में मारै छै माथेॅ में टीस ।
चार चैके सोल्लह, चार दुनी आठ
चोरी डकैती सेॅ बनलोॅ छै लाट ।
पाँच तिया पन्द्रह, पाँच चैके बीस
फेल होलै बुतरु नै देभौं फीस ।
छछाके छत्तीस, छोॅ पँचे तीस
सब्भेॅ तेॅ बच्है पर झाड़ै छै रीस ।
सात दौंही सत्तर, सात एकां सात
सोटा लै घूमै छै गुरुजी हाथ ।
अठी-अठी चैंसठ, आठ एकाँ आठ
घोॅर गेलै चटिया गुरुजी घाट ।
नोॅ चैके छत्तीस, नोॅ एकाँ नोॅ
नै पढ़भौ, नै लिखभौ । खेलभौ जो।
दस चैके चालीस, दस पँचे पचास
नै पढ़लां, नैं लिखलां, छीलै छी घास ।