भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पटाक्षेप / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
हो गयी शाम !
कोई नहीं आयगा,
भूल जाओ
सभी नाम !
हो गयी शाम !
मत करो रोशनी
अंधेरा भला है,
देख लूँ स्वप्न
हर बार जिसने
छला है !
विवश मूक मन में
पला है !
नहीं शेष
कोई काम !
हो गयी शाम !
सो लूँ
सरे-शाम,
अविराम!
आयाम.....
आयाम!