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पटाक्षेप / मालती शर्मा

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न जाने किस घड़ी में
कौतूहल-कौतूहल में
मैंने यह नर-वेश पहन लिया था
और फिर घुमेरों-लय-तालों में
अपने को बिसरा
भूल ही गई थी कि
मैं कौन हूँ, क्यों हूँ
तुम्हें मेरा यह नाच-वेश
इतना भा गया कि
तालियों की गड़गड़ाहट
फूल-मालाओं-पुष्प-गुच्छों,
कैमरे की क्लिक-क्लिक
और अख़बारों की सुर्ख़ियों के
तेज़-तेज़ आर्केस्ट्रा पर
मुझे नचाते गए नचाते गए
और और भड़कीले नृत्यवेशों में
सजाते गए सजाते गए
घुँघरुओं की लड़ियाँ बढ़ाते गए
पर धीरे-धीरे कुछ दिन बाद
तुम्हारे लिए न घुँघरुओं में वह
खनक रही
न मेकअप की पर्तें फोड़
भंगिमाओं से कौंधती बिजली ही
अब
तुम्हारी आँखें
क्रोध, खीझ और नफ़रत से जल उठी हैं
मैं जानती हूँ
तुम्हारा इरादा
मुझे ठोकर मार कर
किसी कोने में पटक मृत घोषित करने का है
पर मैं मरी नहीं हूँ
सिर्फ़ तुम ऊब गए हो
तुम ग़लत समझे हो दोस्त
अभिनय जीवन नहीं
शौक़ या मजबूरी होता है
पर हम सब अलग-अलग तरह से
उसे ही जीवन समझने को अभिशप्त हैं!