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पड़ती जो दर्द सहने की आदत कभी-कभी / रंजना वर्मा
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पड़ती जो दर्द सहने की आदत कभी कभी।
लब करते नहीं हैं तो शिकायत कभी कभी॥
सजती रही हैं महफ़िलें यूँ तो यहाँ वहाँ
बनते हैं दोस्त यार मुसीबत कभी कभी॥
चलती रही है बागे सबा यूँ तो रोज़ ही
मिलती है दुश्मनों की इनायत कभी कभी॥
हमने कभी न दुश्मनी की साथ किसी के
फिर भी हैं लोग करते अदावत कभी कभी॥
खिलने लगी कली है सुमन मुस्कुरा रहे
भौरों को इनकी भी हुई आदत कभी कभी॥
देखे हज़ार ख़्वाब नज़र ने तो हमेशा
भरती है रंग उनमें भी किस्मत कभी कभी॥
हर बार ही उलझते रहे तार प्रीति के
होती है प्यार की भी ज़रूरत कभी कभी॥