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पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी / साबिर ज़फ़र

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पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी
लहू लहू ही रहा जम के भी पिघल के भी

बदन ने छोड़ दिया रूह न रिहा न किया
मैं क़ैद ही में रहा क़ैद से निकल के भी

तहों का शोर भी अब सतह पर सुनाई दे
वो जोश में है तो फिर जिस्म ओ जाँ से छलके भी

नई रूतों में भी ‘साबिर’ उदासियाँ न गईं
ख़मीदा-सर है हर इक शाख़ फूल फल के भी