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पड़ा रहा छपपनियां का काल / हरियाणवी
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हरियाणवी लोकगीत ♦ रचनाकार: अज्ञात
पड़ा रहा छपपनियां का काल
पड़ रहा कैसा री दुकाल
दिया री महंगाई नै मार
दमड़ी के हो गए चार
कपड़ा मिलै न टाट
अन्न दाल का टोटा पड़ गया
बालक सारे रोते डोलें
जीना जी का जंजाल
पड़ रहा छप्पनियां का काल
आया जमाई धड़का जी
कहां से लाउं सक्कर घी
मान महत मेरा सारा मर गया
कौन ओड़ निभावे करतार
पड़ रहा छप्पनियां का काल