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पढ़ते हुए समय को / उपेन्द्र कुमार

चाहे वह
एक सिसकी हो
हल्की-सी
अथवा निःशब्द ढुलकते अश्रु-कण
बाँसुरी की स्वर-लहरी
अथवा हों कविता के तैरते हुए शब्द
देती है प्रकृति सबका उत्तर-
बदलते हुए मौसमों
गुनगुनाती हुई हवा
तूफान सैलाब और भूकंपों से
पढ़ते हुए समय को
अकेला नहीं होता
कोई चेहरा
पिघलती हुई
स्मृतियों में

जब झर रहे होते हैं
फूल निःशब्द चाट
रही होती है गाय
बछड़े को
पावन स्पर्शों की
वैसी ही रातों में
उतरते हैं देवदूत
बुहारने धरती
उस क्षण बदलते होते हैं
विज्ञान के गणितीय सिळांत
शून्य में हमारे जुड़ते ही
बनने लगते हैं पूर्णांक
जो बढ़ते हैं
बनते पिरामिड से
और यह निर्माण
फैल जाता है
सदियों तक
नदियों के पवित्र जल-सा