भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पढ़बा-लिखबा न त डोम-चमार बनबा !! / अनुज कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं डोम-चमार नहीं,
मैं मदेसिया हलवाई हूँ, कानू हूँ,
गनीनाथ मेरे देवता हैं,
गोविन्द भी ।

मैं डोम-चमार होता,
तो छट से दो रोज़ पहले
बूढ़ी गण्डक की नाक-भौं सजा रहा होता,
ताकि कोई झा अपने मन्त्रों के एक्सक्ल्यूसिव दिमागी पोटली के साथ,
अपनी जनाना को जग-जहान से बचाते हुए,
बच्चों को मवेशी की तरह किनारे ला सके,
ताकि रे-बैन चढ़ाए मूँछों पर ताव देते, कोई सिंह,
अपनी लिपी-पुती बीवियों के साथ आराध्या को अरग चढ़ा सके,
ताकि कोई साह टोकरे में कम हो रहे प्रसादी के लिए फल-तेल-चीनी की दुहाई दे सके,
ताकि कायस्थों के मसखरे, मुसहर, दुसाध, कलवार या पासी की कन्याओं की जवानी नाप सकें,
ताकि हर कोई ख़ुद को बेहतर भक्त जता सके,
अच्छे होने-दिखने की आजमाइश कर सके ।

मैं डोम-चमार होता,
तो छटी मईया मेरी बपौती होती,
मैं ही नाव में बच्चों को खेता,
गुब्बारे बेचता, आइसक्रीम दिखा सब को मोहता,
मैं ही छट-पर्व का इवेण्ट-मैनेजर होता ।

पर मैं डोम-चमार नहीं,
मैं कानू हूँ, गुप्ता हूँ,
और हम जैसे, हमसे ऊपरवाले जैसे थोड़ा बहुत पढ़-पाढ़ लेते हैं,
सेकरेटेरियट, वकीली, डाक्टरी, प्रोफ़ेसरी या सरकारी मुलाजिम हो लेते हैं
हाँ, मूँह छूटते ही कहते हैं --
“अऊर का ! पढ़बा-लिखबा न त डोम-चमार बनबा !!