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पतझड़ के घर न सजतो / राम सिंहासन सिंह

कल देखली हलऽ सूखल डाली
उहाँ कली लग गेलो।
सिँचली-भी हम आज अचानक
अपने से जग गेलो।।
मत पूछऽ अब कइसे सुन्नर
फूलवा ई में खितलई?
कइसे कोई कली डाल पर
अपने से खिल जयतइ?
कोनो कभी नी कह सकतो
कइसे फूल खिलऽहे?
सूखल डाली में भी कइसे
रस के धार मिलऽहे?
प्रकिरती यही तो सब दिन कैलक
सूखल डाल खिलैलक
जीवन के सब दुःख-ताप के
ओही दूर भगैलक।
कोनो कभी न जानऽ हे कब
केकरा पर का पड़तइ?
लाल बसन्ती रूख-विटप कब
पतझड़ अइसन झड़तइ।
एक वही हौ ऊपर वाला
वही राह दिखलैतो
पतझड़ के घर वही सजैतो
फुलवा नया खिलैतो।
मन से केवल ध्यान लगाबऽ
ओकरे गुनवा गाबऽ
एक वही है करता-धरता
ओकरे सीस नबाबऽ।