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पतझर के कानों में / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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आसमान का गात बँधा है तारों की जंजीर में,
खेल रही है खेल चाँदनी-
फागुन की जागीर में।
बिना नाल के फूल थिरकते हैं यमुना की धार में,
जैसे उड़-उड़ सपने चलते पहले-पहले प्यार मेें;
रोक रहा है नजर चन्द्रमा अब धरती के चीर में,
मानों कोई नयन गड़ाता-
मुग्धा की तस्वीर में।

धीरे-धीरे पाँव बढ़ाती एक मोरनी डाल में,
नीर छलकने को ज्यों डरती नव पनिहारिन चाल में;
हँसी-खुशी की हाट देखकर परिवर्तन है पीर में,
कली कंज की शरमाती है-
ज्यों भँवरों की भीर में।

भोली निरी ओस की बूँदें पड़ी सोचती बाग में,
बातें करो चाँद से हँस-हँस सोचो मत क्या भाग में;
जगमग-जगमग शुक्र चमकता प्राची की प्राचीर में,
आशा का ईश्वर ज्यों हँसता-
दुखिया की तकदीर में।

पतझर के कानों में भँवरे स्वर हैं ऐसे डालते,
मानों किसी पुराने कवि को नये गीत ललकारते;
मन की बात कोकिला कहती डूब प्यार के नीर में,
दुखी-सुखी दोनों को प्यारे-
रँगना नये अबीर में।