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पतन के गर्त में उत्थान क्यों है, हम नहीं समझे / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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पतन के गर्त में उत्थान क्यों है, हम नहीं समझे
बना अभिशाप हर वरदान क्यों है, हम नहीं समझे

जिसे हैवानियत भी देख कर मुँह को छुपाती है
पतित यूँ आज का इन्सान क्यों है, हम नहीं समझे

जिधर देखो, लगी है भीड़ भारी स्वार्थ के पथ में
डगर परमार्थ की सुनसान क्यों है, हम नहीं समझे

भड़कता जा रहा है बैर का सब ओर दावानल
बगीचा प्यार का वीरान क्यों है, हम नहीं समझे

पुरस्कृत चापलूसी को किया जाता सभाओं में
कला का इस क़दर अपमान क्यों है, हम नहीं समझे

नज़र आती उदासी आज है हर फूल के मुख पर
मगर हर ख़ार पर मुस्कान क्यों है, हम नहीं समझे

अनेकों वस्त्र बदले आज की तहज़ीब ने यारो!
नहीं पर लाज का परिधान क्यों है, हम नहीं समझे

निकल स्वाधीनता का सूर्च तो कत का चुका लेकिन
धरा पर तमस का अभियान क्यों है, हम नहीं समझे

असत का हो रहा स्वागत सुधा के स्वर्ण पात्रों से
नियति में सत्य के, विषपान क्यों है, हम नहीं समझे

चढ़ाया जा रहा निर्दाेष, निर्बल न्याय शूली पर
अनय का ही सतत यशगान क्यों है, हम नहीं समझे

पता इन्सान को है ज़िन्दगानी चार दिन की है
करे सदियों का फिर सामान क्यों है, हम नहीं समझे

कहीं भी मिल सकी समता न कथनी और करनी में
मनुज की गुम हुई पहचान क्यों है, हम नहीं समझे

सफलता चूमती अब तो चरण है, चाटुकारों के
पराजित प्रखर प्रतिभावान क्यों है, हम नहीं समझे

धधकती हर तरफ़ देती दिखाई युद्ध की ज्वाला
अमन की राह में व्यवधान क्यों है, हम नहीं समझे

‘मधुप’ सब मिल चुके समने सुनहरे धूल में अब वो
न हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तान क्यों है, हम नहीं समझे