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पतवाणों / ओम नागर
Kavita Kosh से
लूंठां सूं लूंठा दरजी कै बी
बूता मं कोई न्हं
परेम को असल पतवाणो ले लेबो।
छणीक होवै छै
परेम की काया को दरसाव
ज्यें केई नै
दीखता सतां बी न्हं दीखै
न्हं स्वाहै कोई नै फूटी आंख।
आपणा-आपणा फीता सूं
लेबो चाह्वै छै सगळां
नांळा-नांळा पतवाणा
उद्धवों कतनो ई फरल्ये भापड़ो
गुरत की फोटळी
माथा पै ऊंच्यां
ब्रज की गळी-गळी।
उद्धवों का कांधा पै धर्या
बारहा खांटां का बा’ण सूं बी
बुतबा म्हं न्हं आयो
परेमपगी गोप्यां को म्हैड़लो।
चौरासी कौस की परकमां छै
परेम को असल पतवाणों।