पता नहीं कुछ रात-दिवस का / हनुमानप्रसाद पोद्दार
पता नहीं कुछ रात-दिवसका, पता नहीं कब संध्या-भोर।
जाग्रत्-स्वप्न दिखायी देता श्याम सदा मेरा चितचोर॥
भूल गयी मैं नाम-धाम निज, भूल गयी सुधि-हूँ मैं कौन।
नयन नचाकर, प्राण हरण कर, खड़ा हँस रहा धरकर मौन॥
कैसी मधुर मूर्ति, वह कैसा था विचित्र मनहारी रूप!
आँखें झूर रहीं, झरतीं नित, करतीं स्मृति सौन्दर्य अनूप॥
मर्म बेधकर धर्म मिटाया, किया चूर सारा अभिमान।
लोक-लाज, कुल-कान मिटी सब, रहा न कुछ निज-परका भान॥
हा! कैसा बिधु-वदन सुधामय, विचर रहा कालिन्दी-कूल।
हर सर्वस्व बाँध सब तोड़े, मिटे सभी मर्यादा-कूल॥
मनसा मिल रहते मेरे सब अङङ्ग नित्य प्रियतमके अङङ्ग।
नहीं छूटता कभी, सभी विधि रहता सदा श्यामका सङङ्ग॥
रसमय हुई नित्य रस पाकर रसिक-रसार्णवका सब ओर।
बही रस-सुधा-सरिता-धारा पवित कर सब, रहा न छोर॥
श्याम रहे या रही मैं-कहीं, कुछ भी नहीं रहा संधान।
श्याम बने मैं, श्याम बनी मैं, एकमेक हो रहे महान॥