पता नहीं क्यों? / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
हाथी घोड़े बंदर भालू,
की कविताएं मुझे सुहातीं।
पता नहीं क्यों अम्मा मुझको,
परियों वाली कथा सुनाती।
मुझको यह मालूम पड़ा है,
परियां कहीं नहीं होतीं हैं।
जब सपने आते हैं तो वे,
पलकों की महमां होती हैं।
पर हाथी भालू बंदर तो,
सच में ही कविता पढ़ते हैं।
कविता में मिल-जुल कर रहते,
कविता में लड़ते-भिड़ते हैं।
बंदर खीं-खीं कर पढ़ता है,
हाथी की चिंघाड़ निराली।
भालू हाथी शेर बजाते,
इनकी कविता सुनकर ताली।
सियार मटककर दोहे पढ़ता,
और लोमड़ी गजल सुनाती।
कभी शेरनी गजलें सुनने,
भूले-भटके से आ आती।
रोज नीम के पेड़ बैठकर,
कोयल मीठे गाने पाती।
पता नहीं क्यों अम्मा मुझको,
परियों वाली कथा सुनाती।
हिरण चौकड़ी भरकर गाता,
होता है जब वह मस्ती में।
रोज सुबह ही गीत सुनाता,
मुर्गा जब होता बस्ती में।
शतुर्मुग की ऊंची गर्दन,
नहीं किसी मुक्तक से कम है।
कविता पढ़कर करें सामना,
गधा कह रहा किसमें दम है।
बड़ा सलौना सुंदर लगता,
बकरी का मैं-मैं का गाना।
मन को झंकृत कर देता है,
सुबह-सुबह से गाय रंभाना।
बतख नदी और तालाबों में,
तैर-तैर कर छंद सुनाती।
मछली की रंगीन लोरियां,
मन को पुलकित करकर जातीं।
देख-देख मैंना को तोता,
हर दिन पढ़ता सुबह प्रभाती।
पता नहीं क्यों अम्मा मुझको,
परियों वाली कथा सुनाती।