पता नहीं यह रुलाई कैसी-सी है / देवी प्रसाद मिश्र
मैं लिखित कविता की किसी तरह आती जाती साँस हूँ
उदास हूँ
मैं साहित्य से बाहर की बदहवासी हूँ मैं हवा को हेलो कहता पेंटागन का नहीं बच्चों का बनाया काग़ज़ का हेलीकॉप्टर हूँ अन्धड़ हूँ मैं ईश्वर के न होने के उल्लास में सोता हुआ बेफिकरा लद्धड़ हूँ।
चकबन्दी, नसबन्दी और नोटबन्दी
के गलियारों से गुज़रता मैं खुले जेल का बन्दी
मैं ढूँढ़ रहा हूं चन्दूबोर्डे की अपने समय की सबसे निर्भीकता से छक्के के लिए उड़ाई लाल गेंद की मर्फी रेडियो से छनकर आती मासूमियत।
इस बदहवासी में मैं कौन सी फ़िल्म देखने जाऊँ सिनेमा थियेटर स्टाक मार्केट में बदल गए हैं क्रिकेट कैसिनो में।
मैं कितने ही चैनलों में ढूंढ़ता रहा सईद अख़्तर मिर्ज़ा की कोई फ़िल्म लेकिन बार-बार गुजरात के गिर फॉरेस्ट में हिरण को दौड़ाता व्याघ्र मिलता रहा और गुजरात दंगों का छुट्टा अभियुक्त और बुलेट ट्रेन के सपनों में मदमाता देशभक्त और अमिताभ बच्चन का गुजरात आने का आमन्त्रण लेकिन उनके बुलाने के पहले ही मैं तो गुलबर्ग सोसायटी हो आया था
और रो आया था
पता नहीं यह रुलाई
वैसी ही थी या नहीं कि जैसी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र रोए होंगे बनारसी और बनिया नवजागरण की शैली में कि
भारत दुर्दशा देखी न जाई।
मतलब कि पर्यटन में आप पर यह मुमानियत तो हो नहीं सकती कि आप क्या न देखें
और इतिहास के किस दौर की किस शैली में
किस कोने में किस अन्धेरे में किस उजाले के लिये रोएँ।
कोई मेरे कान में कहता है कि कारपोरेट हमारे भ्रष्ट ऐस्थेटिक्स में निवेश करता है और हमारी राजनीतिक मनुष्यता से डरता है। वह कोई कौन है कि जैसे सरकारी अस्पताल के कोने में बजती हुई खाँसी
और लक्ष्मीबाई के गिरने के बाद रौंदी हुई झाँसी।
एक तरफ पूरे देश की हाय है
जिसके बरक्स प्लास्टिक चबाती बाल्टी भर राजनीतिक और अमूल दूध देती गाय है
और स्मृति के तुलसीत्व की रामदेवीय दन्तकान्तीय महक। दहक।...............ता है दिल।
निर्वासित है तो कहीं भी मिल।
नवाज़ुद्दीन को उनके अपने ही नगर में शिवसैनिकों ने मारीचि तक नहीं बनने दिया राम बनने की ललक उन्होंने दिखाई होती तो क्या होता कहा नहीं जा सकता
मैं रामलीला में कुछ नहीं बनूँगा
मैं भारतीय नागरिक के पात्र की भूमिका से ही हलकान हूँ मुक्तिबोध की तरह सबको नंगा देखता और उसकी सज़ा पाता कंगले बनारसी बुनकर की कबीरी थकान हूँ
नरोदा में एक के बाद दूसरा जलाया गया मकान हूँ कह लीजिये अपने को कोसता हिन्दुदुस्तान हूँ।
ईश्वर को धोखा देने की रणनीति से मैं काफी विह्वल हूँ
इतना संशयालु हूँ कि सम्भल हूँ और इतना म्लान हूँ कि धूमिल हूँ।
समकालीन साम्यवाद किसी सुखवाद का नमूना है
होगा कोई विस्मृत आत्म-निर्वासित जिसे वैचारिक निमोनिया है
अगर देश को हिन्दू राष्ट्र घोषित किया ही जाना था तो ठीक उसके पहले अखलाक<ref>अखलाक को गोमाँस खाने के बेबुनियाद सन्देह के घेरे में लाकर हिन्दू धर्मोन्मादियों की भीड़ ने मार डाला था</ref> की हत्या के अभियुक्त की मृत देह को तिरंगे में लपेटकर बर्फ़ में रखा गया।
जेल में वह चिकिनगुनिया से मरा या अपराधबोध से यह पोस्टमार्टम रिपोर्ट में निकलने से रहा फिर भी काबीना स्तर का मन्त्री पूरे लाव लश्कर, राजनीतिक कार्यभार और सांस्कृतिक ज्वर के साथ पहुँचा। अफ़सोस यह कि आत्म सम्मान और साम्प्रदायिकता के सात्विक क्रोध से काँपते हिन्दुओँ से यह वादा न कर सका कि जन्मजात अब कोई शूद्र न होगा।
हिन्दू सत्य इस समय लगभग हरेक की जेब में है स्मार्ट फ़ोनों के ऐप में है श्रीराम सेना वालों के पास पड़े-पड़े वह इतना कोसा हो गया है कि तीन साल पुराना मीथेनमय समोसा हो गया है उत्तर-सत्य की इस महावेला में।
अब तो काफ़ी लोगों का मानना है कि जाति पर अगर सोच समझकर राजनीतिक नीरवता में सर्जिकल स्ट्राइक की जाए तो वह ख़त्म हो सकती है लेकिन फिर इसके लिए कम से कम एक कैबिनेट मीटिंग तो बनती है।
स्वातंत्र्योत्तर भारत में आज़ादी का नारा सबसे सांगीतिक तरीके से लगाने वाले कन्हैया ने हमारे पराभव के कुछ दिनों को आशावाद में बदल दिया
लेकिन काहे यार,
लालू का
पैर छू लिया
फिर भी धन्यवाद एक डेढ़ पखवाड़े की झनझनाती टँगटड़ाँग उम्मीद के लिए।
लालू हमारे अंत:करण के लिए ज़रूरी पदार्थमयता है।
सेक्युलरिज्म के लिए यह अच्छी ख़बर है कि हम सब भूल गए हैं कि लालूपोषित शहाबुद्दीन पूर्व जेएनएयू अध्यक्ष चन्द्रशेखर का हत्यारा था मतलब कि लालू हमारे सेक्युलरीय गणित के लिए अनिवार्य अंक है
एक गल्प है कि हमारे पास विकल्प है।
आइये एक सवाल पूछते हैं मोदी से नहीं ख़ुद से
कि राष्ट्र के तौर पर हम कौन हैं —
यह द्विवेदी बताएँगे जो चैनलों में घूमता वैचारिक डॉन हैं
एक खूँ आलूदा पर्दे के सामने स्तब्ध बैठे हम स्साले निस्सार निरीह माशा छटाँक आधा और पौन हैं।
मेरे पास क्या है एक बेजुबान आँ है
सामने ढहता जग है ठग है अपमान भूलने के लिए मेरे झोले में पंजाब से लाई ड्रग है
और काव्यगुणों में न लिथड़ता रेटरिक
और लाल सलाम वाला कटा हुआ हाथ
और जो आदिवासी मार दिया गया खाते समय
उसका न खाया भात