भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पता ना केने से टकरा के हवा आइल बा / रिपुसूदन श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पता ना केने से टकरा के हवा आइल बा,
फेर उहे गन्ध सांस-सांस में समाइल बा

आज का बात ह बन-ठन दुआर पर हमरा,
भोरे-भोरे बेबोलवले बहार आइल बा

रतन ह रुप के आकि सनेह के सोना,
आकि खुद चाँद तलैया में उतर आइल बा

दूभि के पात में छिपल बा ओस के मोती,
बनके चितचोर केहू आँखि में लुकाइल बा

मुए का बात से दुनियां बेकार डेरवावे,
एहसे का कम इहाँ जी-जी के चोट खाइल बा

हमरा त मौत से शिकवा ना कुछ शिकायत बा,
खुद ई जिनगी जब बगावत पर उतर आइल बा।

जब ले दरदल ना हिया सिरिजना भइल ना कभी,
लोर का जोर पर हर गीत मुस्कुराइल बा।