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पतित नहीं जो होते जगमें / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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पतित नहीं जो होते जगमें, कौन पतितपावन कहता ?
अधमोंके अस्तित्व बिना ‘अधमोद्धारण’ कैसे कहता ?
होते नहीं पातकी, ‘पातकि-तारण’ तुमको कहता कौन ?
दीन हु‌ए बिन, दीनदयालो! ‘दीनबन्धु’ फिर कहता कौन ?
पतित, अधम, पापी, दीनोंको क्यों कर तुम बिसार सकते।
जिनसे नाम कमाया तुमने, क्योंकर उन्हें टाल सकते॥
चारों गुण मुझमें पूरे, मैं तो विशेष अधिकारी हूँ।
नाम बचानेका साधन हूँ, यों भी तो उपकारी हूँ॥
इतनेपर भी नाथ! तुम्हें यदि मेरा स्मरण नहीं होगा।
दोष क्षमा हो, इन नामोंका रक्षण फिर क्योंकर होगा ?॥
सुन प्रलापयुत पुकार, अब तो करिये नाथ! शीघ्र उद्धार।
नहीं छोडिय़े नामोंको-यों कहनेको होता लाचार॥
जिसके को‌ई नहीं, तुम्हीं उसके रक्षक कहलाते हो।
मुझे नाथ अपनानेमें फिर क्यों इतना सकुचाते हो ?
नाम तुम्हारे चिर सार्थक हैं-मेरा दृढ़ विश्वास यही।
इसी हेतु, पावन कीजै प्रभु! मुझे कहींसे आस नहीं॥
चरणोंको दृढ़ पकड़े हूँ, अब नहीं हटूँगा किसी तरह।
भले, ड्डेंक दो, नहीं सुहाता अगर पड़ा भी इसी तरह॥
पर यह रखना स्मरण नाथ! जो यों दुतकारोगे हमको।
अशरण-शरण, अनाथ-नाथ, प्रभु कौन कहेगा फिर तुमको!